आज एक इंसान को इंसान बनते देखा है
इन धूप में सिकते पेड़ों को दूसरों को छाँव देते देखा है,
आज एक इंसान को इंसान बनते देखा है।
कुछ हवा की तबीयत ठीक नहीं,
पर ऐसे रुख बदलते हालातों में उसे बरगद सा विशाल देखा है।
स्वार्थपरता जिसकी प्रख्यात , अतुलनीय है,
जो अपेक्षाओं से निराश होके, इंसानियत को व्यर्थ समझता है,
उस जन जाति से तुलना करने वाले को,उन्ही इच्छाओं को स्वयं पूरा करके स्वावलंबी बनते देखा है,
आज फिर से एक इंसान को , इंसान बनते देखा है।
जो पहाडों के शिखर पे संग एक हमसफ़र की चाह रखता था,
उसे रास्तों में मिले अनुभवों का आनन्द लेते देखा है,
आज एक इंसान को इंसान बनते देखा है।
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